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विनायक सावरकर -समरसता व हिंदुत्व के पुरोधा

 “मैं तुम्हारे दर्शन करने आया हूँ मदन, मुझे तुम पर गर्व है. सावरकर तुम्हें मेरी आँखों में डर की परछाई तो नहीं दिखाई दे रही, बिल्कुल नहीं मुझे तुम्हारे चेहरे पर योगेश्वर कृष्ण का तेज दिखाई दे रहा है, तुमने गीता के स्थितप्रज्ञ को साकार कर दिया है मदन”. न जाने ऐसे कितने ही जीवन हैं जो सावरकर से प्रेरणा प्राप्त कर मातृभूमि के लिए हंसते हंसते बलिदान हो गए. महापुरुषों का स्मरण व सदैव उनके गुणों को आत्मसात करते हुए आगे बढ़ते रहना, यही भारत की श्रेष्ठ परंपरा है. ऐसे ही अकल्पनीय व अनुकरणीय जीवन को याद करने का दिन है सावरकर जयंती.

यहां दीप नहीं जीवन जलते है 


विनायक दामोदर सावरकर केवल नाम नहीं, एक प्रेरणा पुंज है जो आज भी देशभक्ति के पथ पर चलने वाले मतवालों के लिए जितने प्रासंगिक हैं, उतने ही  प्रेरणादायी भी. वीर सावरकर अदम्य साहस, इस मातृभूमि के प्रति निश्छल प्रेम करने वाले व स्वाधीनता के लिए अपने प्राणों को न्यौछावर करने वाला अविस्मरणीय नाम है. इंग्लैंड में भारतीय स्वाधीनता हेतु अथक प्रवास, बंदी होने पर भी अथाह समुद्र में छलांग लगाने का अनोखा साहस, कोल्हू में बैल की भांति जोते जाने पर भी प्रसन्नता, देश के लिए परिवार की भी बाजी लगा देना, पल -प्रतिपल देश की स्वाधीनता का चिंतन व  मनन, अपनी लेखनी के माध्यम से आमजन में देशभक्ति के प्राण का संचार करना, ऐसा अदभुत व्यक्तित्व था विनायक सावरकर का. सावरकर ने अपने नजरबंदी समय में अंग्रेजी व मराठी में अनेक मौलिक ग्रंथों की रचना की, जिसमें मैजिनी, 1857  स्वातंत्र्य समर, मेरी कारावास कहानी, हिंदुत्व आदि प्रमुख हैं.

सर्वत्र प्रथम कीर्तिमान रचने वाले सावरकर

सावरकर दुनिया के अकेले स्वातंत्र्य योद्धा थे, जिन्हें दो-दो आजीवन कारावास की सजा मिली. सजा को पूरा किया और फिर से राष्ट्र जीवन में सक्रिय हो गए. वे विश्व के ऐसे पहले लेखक थे, जिनकी कृति 1857 का प्रथम स्वतंत्रता संग्राम को दो-दो देशों ने प्रकाशन से पहले ही प्रतिबंधित कर दिया. सावरकर पहले ऐसे भारतीय राजनीतिज्ञ थे, जिन्होंने सर्वप्रथम विदेशी वस्त्रों की होली जलाई. वे पहले स्नातक थे, जिनकी स्नातक की उपाधि को स्वतंत्रता आंदोलन में भाग लेने के कारण अंग्रेज सरकार ने वापस ले लिया. वीर सावरकर पहले ऐसे भारतीय विद्यार्थी थे, जिन्होंने इंग्लैंड के राजा के प्रति वफादारी की शपथ लेने से मना कर दिया. फलस्वरूप उन्हें वकालत करने से रोक दिया गया. वीर सावरकर ने राष्ट्र ध्वज तिरंगे के बीच में धर्म चक्र लगाने का सुझाव सर्वप्रथम दिया था, जिसे तात्कालिक  राष्ट्रपति डॉ. राजेंद्र प्रसाद ने माना. उन्होंने ही सबसे पहले पूर्ण स्वतंत्रता को भारत के स्वतंत्रता आंदोलन का लक्ष्य घोषित किया. वे ऐसे प्रथम राजनैतिक बंदी थे, जिन्हें विदेशी (फ्रांस) भूमि पर बंदी बनाने के कारण हेग के अंतरराष्ट्रीय न्यायालय में मामला पहुँचा. वे पहले क्रांतिकारी थे, जिन्होंने राष्ट्र के सर्वांगीण विकास का चिंतन किया तथा बंदी जीवन समाप्त होते ही जिन्होंने अस्पृश्यता आदि कुरीतियों के विरुद्ध आंदोलन शुरू किया. दुनिया के वे ऐसे पहले कवि थे, जिन्होंने अंदमान के एकांत कारावास में जेल की दीवारों पर कील और कोयले से कविताएँ लिखीं और फिर उन्हें याद किया. इस प्रकार याद की हुई दस हजार पंक्तियों को उन्होंने जेल से छूटने के बाद पुन: लिखा.

काल कोठरी के ग्यारह साल व सावरकर

क्या मैं अब अपनी प्यारी मातृभूमि के पुनः दर्शन कर सकूंगा ? 04 जुलाई 1911 को अंदमान की सेलुलर जेल में पहुँचने से पहले सावरकर के मन की व्यथा शायद कुछ ऐसी ही रही होगी. अंदमान की उस काल कोठरी में सावरकर को न जाने कितनी ही शारीरिक यातनाएं सहनी पड़ी होंगी, इसको  शब्दों में बता पाना असंभव है. अनेक वर्षो तक रस्सी कूटने, कोल्हू में बैल की तरह जुत कर तेल निकालना, हाथों में हथकड़ियां पहने हुए घंटों टंगे रहना, महीनों एकांत काल-कोठरी में रहना और भी न जाने किस -किस प्रकार के असहनीय कष्ट झेलने पड़े होंगे सावरकर को. लेकिन ये शारीरिक कष्ट भी कभी उस अदम्य साहस के पर्याय बन चुके विनायक सावरकर को प्रभावित न कर सके. कारावास में रहते हुए भी सावरकर सदा सक्रिय बने रहे. कभी वो राजबंदियों के विषय में निरंतर आंदोलन करते, कभी पत्र द्वारा अपने भाई को आंदोलन की प्रेरणा देते, कभी अपनी सजाएँ समाप्त कर स्वदेश लौटने वाले क्रांतिवीरों को अपनी कविताएं व संदेश कंठस्थ करवाते. इस प्रकार सावरकर सदैव अपने कर्तव्यपथ पर अग्रसर दिखाई दिए. उनकी अनेक कविताएं व लेख अंदमान की उन दीवारों को लांघ कर 600 मील की दूरी पार करके भारत पहुँचते रहे और समाचार पत्रों द्वारा जनता में देशभक्ति की अलख जगाते  रहे.

समरसता व हिंदुत्व के पुरोधा

सन् 1921 में सावरकर को अंदमान से कलकत्ता लाना पड़ा. वहां उन्हें रत्नागिरी जेल भेज दिया गया. 1924 में सावरकर को जेल से मुक्त कर रत्नागिरी में ही स्थानबद्ध कर दिया गया. उन्हें केवल रत्नागिरी में ही घूमने -फिरने की स्वतंत्रता थी. इसी समय  में सावरकर ने हिंदू संगठन व समरसता का कार्य प्रारम्भ कर दिया. महाराष्ट्र के इस प्रदेश में छुआछूत को लेकर घूम – घूमकर विभिन्न स्थानों पर व्याख्यान देकर धार्मिक, सामाजिक तथा राजनैतिक दृष्टि से छुआछूत को हटाने की आवश्यकता बतलाई. सावरकर के प्रेरणादायी व्याख्यान व तर्कपूर्ण दलीलों से लोग इस आंदोलन में उनके साथ हो लिए.  दलितों में अपने को हीन समझने की भावना धीरे-धीरे जाती रही और वो भी इस समाज का महत्वपूर्ण हिस्सा है, ऐसा गर्व का भाव जागृत होना शुरू हो गया. सावरकर की प्रेरणा से भागोजी नामक एक व्यक्ति ने ढाई लाख रूपए व्यय करके रत्नागिरी में ‘श्री पतित पावन मंदिर’ का निर्माण करवाया. दूसरी और सावरकर ने ईसाई पादरियों और मुसलमानों द्वारा भोले भाले हिंदुओं को बहकाकर किये जा रहे धर्मांतरण के विरोध में शुद्धि आंदोलन प्रारम्भ कर दिया. रत्नागिरी में उन्होंने लगभग 350 धर्म – भ्रष्ट  हिंदुओं को पुनः हिंदू धर्म में दीक्षित किया.

युवाओं के सावरकर

सावरकर का जीवन आज भी युवाओं में प्रेरणा भर देता है. जिसे सुनकर प्रत्येक देशभक्त युवा के रोंगटे खड़े हो जाते है. विनायक की वाणी में प्रेरक ऊर्जा थी. उसमें दूसरों का जीवन बदलने की शक्ति थी. सावरकर से शिक्षा- दीक्षा पाकर अनेकों युवा व्यायामशाला जाने लगे,  पुस्तकें पढ़ने लगे. विनायक के विचारों से प्रभावित असंख्य युवाओं के जीवन में सकारात्मक परिवर्तन आया. जो भोग – विलासी थे, वे त्यागी बन गए. जो उदास तथा आलसी थे, वे उद्यमी हो  गए. जो संकुचित और स्वार्थी थे, वो परोपकारी हो गए. जो केवल अपने परिवार में डूबे हुए थे, वे देश-धर्म के संबंध में विचार करने लगे. इस प्रकार हम कह सकते है कि युवाओं के लिए सावरकर वो पारस पत्थर थे, जो भी उनके संपर्क में आया वो ही इस मातृभूमि की सेवा में लग गया.

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