भारत में जिन महिलाओं का जीवन आदर्श, वीरता, त्याग तथा देशभक्ति के लिए सदा याद किया जाता है, उनमें कुशल प्रशासक, प्रजावत्सल, धर्मपरायणा रानी अहिल्याबाई होल्कर का नाम प्रमुख है. उनका जन्म 31 मई, 1725 को ग्राम छौंदी (अहमदनगर, महाराष्ट्र) में एक साधारण कृषक परिवार में हुआ था. इनके पिता श्री मनकोजी राव शिन्दे परम शिवभक्त थे. अतः यही संस्कार बालिका अहिल्या पर भी पड़े.
एक बार इन्दौर के राजा मल्हार राव होल्कर ने वहां से जाते हुए मन्दिर में हो रही आरती का मधुर स्वर सुना. पुजारी के साथ एक बालिका भी पूर्ण मनोयोग से आरती कर रही थी. उन्होंने उसके पिता को बुलवाकर उस बालिका को अपनी पुत्रवधू बनाने का प्रस्ताव रखा. मनकोजी राव भला क्या कहते; उन्होंने सिर झुका दिया. इस प्रकार वह आठ वर्षीय बालिका इन्दौर के राजकुंवर खांडेराव की पत्नी बनकर राजमहलों में आ गयी.
इन्दौर में आकर भी अहिल्या पूजा एवं आराधना में रत रहती. कालान्तर में उन्हें दो पुत्री तथा एक पुत्र की प्राप्ति हुई. सन् 1754 में उनके पति खांडेराव एक युद्ध में वीर गति को प्राप्त हुए. 1766 में उनके ससुर मल्हार राव का भी देहांत हो गया. इस संकटकाल में रानी ने तपस्वी की भांति श्वेत वस्त्र धारण कर राजकाज चलाया; पर कुछ समय बाद उनके पुत्र, पुत्री तथा पुत्रवधू भी चल बसे. इस वज्राघात के बाद भी रानी अविचलित रहते हुए अपने कर्तव्यमार्ग पर डटी रहीं.
ऐसे में पड़ोसी राजा पेशवा राघोबा ने इन्दौर के दीवान गंगाधर यशवन्त चन्द्रचूड़ से मिलकर अचानक हमला बोल दिया. रानी ने धैर्य न खोते हुए पेशवा को एक पत्र लिखा. रानी ने लिखा कि यदि युद्ध में आप जीतते हैं, तो एक विधवा को जीतकर आपकी कीर्ति नहीं बढ़ेगी. और यदि हार गए, तो आपके मुख पर सदा को कालिख पुत जाएगी. मैं मृत्यु या युद्ध से नहीं डरती. मुझे राज्य का लोभ नहीं है, फिर भी मैं अन्तिम क्षण तक युद्ध करूंगी.
इस पत्र को पाकर पेशवा राघोबा चकित रह गया. इसमें जहां एक ओर रानी अहिल्याबाई ने उस पर कूटनीतिक चोट की थी, वहीं दूसरी ओर अपनी कठोर संकल्पशक्ति का परिचय भी दिया था. रानी ने देशभक्ति का परिचय देते हुए उन्हें अंग्रेंजों के षड्यन्त्र से भी सावधान किया था. अतः उसका मस्तक रानी के प्रति श्रद्धा से झुक गया और वह बिना युद्ध किये ही पीछे हट गया.
रानी के जीवन का लक्ष्य राज्यभोग नहीं था. वे प्रजा को अपनी सन्तान समझती थीं. वे घोड़े पर सवार होकर स्वयं जनता से मिलती थीं. उन्होंने जीवन का प्रत्येक क्षण राज्य और धर्म के उत्थान में लगाया. एक बार गलती करने पर उन्होंने अपने एकमात्र पुत्र को भी हाथी के पैरों से कुचलने का आदेश दे दिया था; पर फिर जनता के अनुरोध पर उसे कोड़े मार कर ही छोड़ दिया.
धर्मप्रेमी होने के कारण रानी ने अपने राज्य के साथ-साथ देश के अन्य तीर्थों में भी मंदिर, कुएं, बावड़ी, धर्मशालाएं आदि बनवाईं. काशी का वर्तमान काशी विश्वनाथ मंदिर 1780 में उन्होंने ही बनवाया था. उनके राज्य में कला, संस्कृति, शिक्षा, व्यापार, कृषि आदि सभी क्षेत्रों का विकास हुआ.
13 अगस्त, 1795 ई. को 70 वर्ष की आयु में उनका देहान्त हुआ. उनका जीवन धैर्य, साहस, सेवा, त्याग और कर्तव्यपालन का प्रेरक उदाहरण है
Comments
Post a Comment