ग्राम कडोली (जिला परभणी, महाराष्ट्र) में 11 अक्तूबर, 1916 (शरद पूर्णिमा) को श्रीमती राजाबाई की गोद में जन्मे चंडिकादास अमृतराव (नानाजी) देशमुख ने भारतीय राजनीति पर अमिट छाप छोड़ी.
1967 में उन्होंने विभिन्न विचार और स्वभाव वाले नेताओं को साथ लाकर उ.प्र. में सत्तारूढ़ कांग्रेस का घमंड तोड़ दिया. इस कारण कांग्रेस वाले उन्हें नाना फड़नवीस कहते थे. छात्र जीवन में निर्धनता के कारण किताबों के लिए वे सब्जी बेचकर पैसे जुटाते थे. 1934 में डॉ. हेडगेवार द्वारा निर्मित और प्रतिज्ञित स्वयंसेवक नानाजी ने 1940 में उनकी चिता के सम्मुख प्रचारक बनने का निर्णय लेकर घर छोड़ दिया.
उन्हें उत्तर प्रदेश में पहले आगरा और फिर गोरखपुर भेजा गया. उन दिनों संघ की आर्थिक स्थिति बहुत खराब थी. नानाजी जिस धर्मशाला में रहते थे, वहां हर तीसरे दिन कमरा बदलना पड़ता था. अन्ततः एक कांग्रेसी नेता ने उन्हें इस शर्त पर स्थायी कमरा दिलाया कि वे उसका खाना बना दिया करेंगे. नानाजी के प्रयासों से तीन साल में गोरखपुर जिले में 250 शाखाएं खुल गयीं. विद्यालयों की पढ़ाई तथा संस्कारहीन वातावरण देखकर उन्होंने गोरखपुर में 1950 में पहला ‘सरस्वती शिशु मन्दिर’ स्थापित किया. आज तो ‘विद्या भारती’ संस्था के अन्तर्गत ऐसे विद्यालयों की संख्या 50,000 से भी अधिक है.
1947 में रक्षाबन्धन के शुभ अवसर पर लखनऊ में ‘राष्ट्रधर्म प्रकाशन’ की स्थापना हुई, तो नानाजी इसके प्रबन्ध निदेशक बनाये गये. वहां से मासिक राष्ट्रधर्म, साप्ताहिक पाञ्चजन्य तथा दैनिक स्वदेश अखबार निकाले गये. 1948 में गांधी जी की हत्या के बाद संघ पर प्रतिबन्ध लगने से प्रकाशन संकट में पड़ गया. ऐसे में नानाजी ने छद्म नामों से कई पत्र निकाले.
1952 में जनसंघ की स्थापना होने पर उत्तर प्रदेश में उसका कार्य नानाजी को सौंपा गया. 1957 तक प्रदेश के सभी जिलों में जनसंघ का काम पहुंच गया. 1967 में वे जनसंघ के राष्ट्रीय संगठन मंत्री बनकर दिल्ली आ गये. दीनदयाल जी की हत्या के बाद 1968 में उन्होंने दिल्ली में ‘दीनदयाल शोध संस्थान’ की स्थापना की.
विनोबा भावे के ‘भूदान यज्ञ’ तथा 1974 में इन्दिरा गांधी के कुशासन के विरुद्ध जयप्रकाश नारायण के नेतृत्व में हुए आन्दोलन में नानाजी खूब सक्रिय रहे. पटना में जब पुलिस ने जयप्रकाश जी पर लाठी बरसायीं, तो नानाजी ने उन्हें अपनी बांह पर झेल लिया. इससे उनकी बांह टूट गयी; पर जयप्रकाश जी बच गये.
1975 में आपातकाल के विरुद्ध बनी ‘लोक संघर्ष समिति’ के वे पहले महासचिव थे. 1977 के चुनाव में इन्दिरा गांधी हार गयीं और जनता पार्टी की सरकार बनी. नानाजी भी बलरामपुर से सांसद बने. प्रधानमंत्री मोरारजी देसाई उन्हें मंत्री बनाना चाहते थे; पर नानाजी ने सत्ता के बदले संगठन को महत्व दिया. अतः उन्हें जनता पार्टी का महामन्त्री बनाया गया.
1978 में नानाजी ने सक्रिय राजनीति छोड़कर ‘दीनदयाल शोध संस्थान’ के माध्यम से गोंडा, नागपुर, बीड़ और अमदाबाद में ग्राम विकास के कार्य किये. 1991 में उन्होंने चित्रकूट में देश का पहला ‘ग्रामोदय विश्वविद्यालय’ स्थापित कर आसपास के 500 गांवों का जन भागीदारी द्वारा सर्वांगीण विकास किया. इसी प्रकार मराठवाड़ा, बिहार आदि में भी कई गांवों का पुननिर्माण किया. 1999 में वे राज्यसभा में मनोनीत किये गये. इस दौरान मिली सांसद निधि का उपयोग उन्होंने इन सेवा प्रकल्पों के लिए ही किया.
‘पद्मविभूषण’ से सम्मानित नानाजी ने 27 फरवरी, 2010 को अपनी कर्मभूमि चित्रकूट में अंतिम सांस ली. उन्होंने अपने 81वें जन्मदिन पर देहदान का संकल्प पत्र भर दिया था. अतः देहांत के बाद उनका शरीर चिकित्सा विज्ञान के छात्रों के शोध हेतु दिल्ली के आयुर्विज्ञान संस्थान को दे दिया गया.
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