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Showing posts from December, 2020

विदिशा में घुमने के लिए प्रमुख पर्यटन स्थल

 विदिशा में घुमने के लिए प्रमुख पर्यटन स्थल 1. साँची स्तूप – साँची का स्तूप भारत के उन एतिहासिक स्मारकों में से एक है जिनका निर्माण भारत के सबसे महान सम्राट राजा अशोक ने अपने शासन कल के बाद बुद्ध धर्म धारण करने के बाद उनके अनुयियो के लिए बनवाया था | यहाँ सम्राट अशोक के शिलालेख भी मिलते है | आज साँची का स्तूप विश्व धरोहरों में शामिल है जिसे देखने के लिए भारत ही नहीं विदेशी पर्यटक भी पुरे साल आते है | यहाँ आपको तीन स्तूप मिलेगें तीनो स्तूपो में भारतीय वास्तुकला का कारीगरों द्वारा बेहद ही खुबसूरत कारीगिरी द्वारा दर्शाया गया है, यहाँ स्थित तीन स्तुपो में से मुख्य स्तूप में भगवान बुद्ध की अस्थियां रखी गयी है, इस स्तूप द्वार पर बने तोरण में भगवान बुद्ध के जीवन को कारीगरों द्वारा बहुत ही खूबसूरती से दर्शाया गया है | यहाँ आपको स्तुपो के अलावा कई खुबसूरत मंदिर भी मिलेंगे, कहा जाता है ये मंदिर गुप्तकाल के राजाओ के द्वारा बनाये गए है | वहीँ इसके पास एक संग्रहालय भी बना हुआ है जिसमे आपको बुद्ध काल और मौर्य काल की कई प्रतिमाये देखने को मिलेगी, इस संग्रहालय में जाने के लिए आपको इंट्री फीस देनी पड़ेगी

Personality : लोकनायक जयप्रकाश नारायण

लोकनायक जयप्रकाश नारायण ने जहां एक ओर स्वाधीनता संग्राम में योगदान दिया, वहां 1947 के बाद भूदान आंदोलन और खूंखार डकैतों के आत्मसमर्पण में भी प्रमुख भूमिका निभाई. 1970 के दशक में तानाशाही के विरुद्ध हुए आंदोलन का उन्होंने नेतृत्व किया. इन विशिष्ट कार्यों के लिए शासन ने 1998 में उन्हें मरणोपरांत ‘भारत रत्न’ से सम्मानित किया. जयप्रकाश जी का जन्म 11 अक्तूबर, 1902 को उ.प्र. के बलिया जिले में हुआ था. पटना में पढ़ते समय उन्होंने स्वाधीनता संग्राम में भाग लिया. 1920 में उनका विवाह बिहार के प्रसिद्ध गांधीवादी ब्रजकिशोर प्रसाद की पुत्री प्रभावती से हुआ. 1922 में वे उच्च शिक्षा के लिए विदेश गये. शिक्षा का खर्च निकालने के लिए उन्होंने खेत और होटल आदि में काम किया. अपनी माताजी का स्वास्थ्य खराब होने पर वे पीएचडी अधूरी छोड़कर भारत आ गए. 1929 में भारत आकर नौकरी करने की बजाय वे स्वाधीनता आंदोलन में कूद पड़े. उन्हें राजद्रोह में गिरफ्तार कर हजारीबाग जेल में रखा गया. दीपावली की रात में वे कुछ मित्रों के साथ दीवार कूदकर भाग गए. इसके बाद नेपाल जाकर उन्होंने सशस्त्र संघर्ष हेतु ‘आजाद दस्ता’ बनाया.

Personality : वीरता की मिसाल फील्ड मार्शल मानेकशा

 प्रख्यात सेनापति फील्ड मार्शल सैम होरमुसजी फ्रामजी जमशेदजी मानेकशा का जन्म 3 अप्रैल 1914 को एक पारसी परिवार में अमृतसर में हुआ था. उनके पिता जी वहां चिकित्सक थे. पारसी परम्परा में अपने नाम के बाद पिता, दादा और परदादा का नाम भी जोड़ा जाता है, पर वे अपने मित्रों में अंत तक सैम बहादुर के नाम से प्रसिद्ध रहे. सैम मानेकशा का सपना बचपन से ही सेना में जाने का था. 1942 में उन्होंने मेजर के नाते द्वितीय विश्व युद्ध में गोरखा रेजिमेंट के साथ बर्मा के मोर्चे पर जापान के विरुद्ध युद्ध किया. वहां उनके पेट और फेफड़ों में मशीनगन की नौ गोलियां लगीं. शत्रु ने उन्हें मृत समझ लिया, पर अपनी दृढ़ इच्छा शक्ति के बल पर वे बच गये. इतना ही नहीं, वह मोर्चा भी उन्होंने जीत लिया. उनकी इस वीरता पर शासन ने उन्हें ‘मिलट्री क्रॉस’ से सम्मानित किया. 1971 में पश्चिमी पाकिस्तान के अत्याचारों के कारण पूर्वी पाकिस्तान के लोग बड़ी संख्या में भारत आ रहे थे. उनके कारण भारत की अर्थव्यवस्था पर बड़ा दबाव पड़ रहा था तथा वातावरण भी खराब हो रहा था. प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने अप्रैल में उनसे कहा कि वे सीमा पार

Personality : क्रांति का दूसरा नाम शहीद भगत सिंह

भारत जब भी अपने आजाद होने पर गर्व महसूस करता है तो उसका सर उन महापुरुषों के लिए हमेशा झुकता है, जिन्होंने देश प्रेम की राह में अपना सब कुछ न्यौछावर कर दिया. देश के स्वतंत्रता संग्राम में हजारों ऐसे नौजवान भी थे, जिन्होंने ताकत के बल पर आजादी दिलाने की ठानी और क्रांतिकारी कहलाए. भारत में जब भी क्रांतिकारियों का नाम लिया जाता है तो सबसे पहला नाम शहीद भगत सिंह का आता है. शहीद भगत सिंह ने ही देश के नौजवानों में ऊर्जा का ऐसा उत्साह भरा कि विदेशी हुकूमत को इनसे डर लगने लगा. हाथ जोड़कर निवेदन करने की जगह लोहे से लोहा लेने की आग के साथ आजादी की लड़ाई में कूदने वाले भगत सिंह की दिलेरी की कहानियां आज भी हमारे अंदर देशभक्ति की आग जलाती हैं. माना जाता है अगर उस समय देश के बड़े नेताओं ने भी भगतसिंह और उनके क्रांतिकारी साथियों का सहयोग किया होता तो देश वक्त से पहले आजाद हो जाता और तब शायद हम और अधिक गर्व महसूस करते. लेकिन देश के एक नौजवान क्रांतिकारी को अंग्रेजों ने फांसी की सजा दे दी. भारत की आजादी के इतिहास में अमर शहीद भगत सिंह का नाम स्वर्ण अक्षरों में लिखा गया है. भगतसिंह का

Personality : मिसाइल मैन डॉ. अब्दुल कलाम

क्या हम कल्पना कर सकते हैं कि उस युवक के मन पर क्या बीती होगी, जो वायुसेना में पायलट बनने की न जाने कितनी सुखद आशाएं लेकर देहरादून गया था; पर परिणामों की सूची में उसका नाम नवें क्रमाँक पर था, जबकि चयन केवल आठ का ही होना था. कल्पना करने से पूर्व हिसाब किताब में यह भी जोड़ लें कि मछुआरा परिवार के उस युवक ने नौका चलाकर और समाचारपत्र बांटकर जैसे-तैसे अपनी पढ़ाई पूरी की थी. देहरादून आते समय वह केवल अपनी ही नहीं, तो अपने माता-पिता और बड़े भाई की आकांक्षाओं का मानसिक बोझ भी अपनी पीठ पर लेकर आया था, जिन्होंने अपनी न जाने कौन-कौन सी आवश्यकताओं को ताक पर रखकर उसे यह सोचकर पढ़ाया था कि वह पढ़-लिखकर कोई अच्छी नौकरी पाएगा और परिवार की आर्थिक स्थिति सुधारने में सहायक होगा. परन्तु पायलट परीक्षा के परिणामों ने सब सपनों को क्षणमात्र में धूलधूसरित कर दिया. निराशा के इन क्षणों में वह जा पहुंचा ऋषिकेश, जहां जगतकल्याणी मां गंगा की पवित्रता, पूज्य स्वामी शिवानन्द के सान्निध्य और श्रीमद् भगवद्गीता के सन्देश ने उसे नये सिरे से कर्मपथ पर अग्रसर किया. उस समय किसे मालूम था कि नियति ने उसके साथ मज

Personality : विश्वेश्वरैया जी

आधुनिक भारत के विश्वकर्मा मोक्षगुण्डम विश्वेश्वरैया जी का जन्म 15 सितम्बर, 1861 को कर्नाटक के मैसूर जिले में मुदेनाहल्ली ग्राम में पण्डित श्रीनिवास शास्त्री जी के घर हुआ था. निर्धनता के कारण विश्वेश्वरैया ने घर पर रहकर ही अपने परिश्रम से प्राथमिक स्तर की पढ़ाई की. जब वे 15 वर्ष के थे, तब इनके पिता का देहान्त हो गया. इस पर ये अपने एक सम्बन्धी के घर बंगलौर आ गये. घर छोटा होने के कारण ये रात को मन्दिर में सोते थे. कुछ छात्रों को ट्यूशन पढ़ाकर पढ़ाई का खर्च निकाला. मैट्रिक और बीए के बाद मुम्बई विश्वविद्यालय से अभियन्ता की परीक्षा सर्वोच्च स्थान लेकर उत्तीर्ण की. इस पर इन्हें तुरन्त ही सहायक अभियन्ता की नौकरी मिल गयी. उन दिनों प्रमुख स्थानों पर अंग्रेज अभियन्ता ही रखे जाते थे. भारतीयों को उनका सहायक बनकर ही काम करना पड़ता था, पर विश्वेश्वरैया ने हिम्मत नहीं हारी. प्रारम्भ में इन्हें पूना जिले की सिंचाई व्यवस्था सुधारने की जिम्मेदारी मिली. इन्होंने वहाँ बने पुराने बाँध में स्वचालित फाटक लगाकर ऐसे सुधार किये कि अंग्रेज अधिकारी भी इनकी बुद्धि का लोहा मान गये. ऐसे ही फाटक आगे चलकर ग्व

Personality : महान वैज्ञानिक डॉ. विक्रम साराभाई

जिस समय देश अंग्रेजों के चंगुल से स्वतन्त्र हुआ, तब भारत में विज्ञान सम्बन्धी शोध प्रायः नहीं होते थे. गुलामी के कारण लोगों के मानस में यह धारणा बनी हुई थी कि भारतीय लोग प्रतिभाशाली नहीं है. शोध करना या नयी खोज करना इंग्लैण्ड, अमरीका, रूस, जर्मनी, फ्रान्स आदि देशों का काम है. इसलिए मेधावी होने पर भी भारतीय वैज्ञानिक कुछ विशेष नहीं कर पा रहे थे. पर, स्वतन्त्रता प्राप्ति के बाद देश का वातावरण बदला. ऐसे में जिन वैज्ञानिकों ने अपने परिश्रम और खोज के बल पर विश्व में भारत का नाम ऊंचा किया, उनमें डॉ. विक्रम साराभाई का नाम बड़े आदर से लिया जाता है. उन्होंने न केवल स्वयं गम्भीर शोध किये, बल्कि इस क्षेत्र में आने के लिए युवकों में उत्साह जगाया और नये लोगों को प्रोत्साहन दिया. भारत के पूर्व राष्ट्रपति डॉ. कलाम ऐसे ही लोगों में से एक हैं. डॉ. साराभाई का जन्म 12 अगस्त, 1919 को कर्णावती (अहमदाबाद, गुजरात) में हुआ था. पिता अम्बालाल जी और माता सरला बाई जी ने विक्रम को अच्छे संस्कार दिये. उनकी शिक्षा माण्टसेरी पद्धति के विद्यालय से प्रारम्भ हुई. साराभाई जी की गणित और विज्ञान में विशेष रुचि थी.

Personality : आधुनिक चाणक्य नानाजी देशमुख

ग्राम कडोली (जिला परभणी, महाराष्ट्र) में 11 अक्तूबर, 1916 (शरद पूर्णिमा) को श्रीमती राजाबाई की गोद में जन्मे चंडिकादास अमृतराव (नानाजी) देशमुख ने भारतीय राजनीति पर अमिट छाप छोड़ी. 1967 में उन्होंने विभिन्न विचार और स्वभाव वाले नेताओं को साथ लाकर उ.प्र. में सत्तारूढ़ कांग्रेस का घमंड तोड़ दिया. इस कारण कांग्रेस वाले उन्हें नाना फड़नवीस कहते थे. छात्र जीवन में निर्धनता के कारण किताबों के लिए वे सब्जी बेचकर पैसे जुटाते थे. 1934 में डॉ. हेडगेवार द्वारा निर्मित और प्रतिज्ञित स्वयंसेवक नानाजी ने 1940 में उनकी चिता के सम्मुख प्रचारक बनने का निर्णय लेकर घर छोड़ दिया. उन्हें उत्तर प्रदेश में पहले आगरा और फिर गोरखपुर भेजा गया. उन दिनों संघ की आर्थिक स्थिति बहुत खराब थी. नानाजी जिस धर्मशाला में रहते थे, वहां हर तीसरे दिन कमरा बदलना पड़ता था. अन्ततः एक कांग्रेसी नेता ने उन्हें इस शर्त पर स्थायी कमरा दिलाया कि वे उसका खाना बना दिया करेंगे. नानाजी के प्रयासों से तीन साल में गोरखपुर जिले में 250 शाखाएं खुल गयीं. विद्यालयों की पढ़ाई तथा संस्कारहीन वातावरण देखकर उन्होंने गोरखपुर में 1950 मे

एक थे जस्टिस सिन्हा जिन्हें झुका नहीं सकीं इंदिरा

सारी परिस्थितियों के बीच 23 मई 1975 को सुनवाई पूरी होने पर जस्टिस जगमोहन लाल सिन्हा ने फैसला सुरक्षित रख लिया. आखिरकार फैसले का दिन (12 जून 1975) आया. जस्टिस सिन्हा ने इंदिरा गांधी के खिलाफ फैसला सुनाते हुए उनका चुनाव रद्द कर दिया और 06 साल तक चुनाव लड़ने पर प्रतिबंध लगा दिया. यही फैसला देश में आपातकाल का केंद्र बिंदु बना. “जब प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी कोर्ट में आएं, तब कोई भी सुरक्षाकर्मी चाहे वह सुरक्षा के लिए ही तैनात क्यों न हो, उपस्थित नहीं होना चाहिए. कोई भी व्यक्ति प्रधानमंत्री का खड़े होकर स्वागत नहीं करेगा.” – जस्टिस जगमोहन लाल सिन्हा स्वतंत्र भारत के इतिहास में जस्टिस जगमोहन सिन्हा के आदेश पर ही 18 मार्च 1975 को  किसी प्रधानमंत्री को अदालत में हाजिर होना पड़ा था. जब भारत की राजनीति की धुरी दो लोगों के बीच घूम रही थी. एक तरफ देश की प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी थीं तो दूसरी ओर लोक नायक जयप्रकाश नारायण. लेकिन धीरे धीरे इस कहानी में कोर्ट कचहरी का दखल बढ़ने लगा. सन् 1971 के आम चुनाव में इंदिरा गांधी 01 लाख से ज्यादा वोटों

Vijay Diwas 16 December

Vijay Diwas 16 December   देश में हर साल 16 दिसंबर को भारत-पाकिस्तान के बीच हुई 1971 की जंग की जीत की याद और युद्ध में शहीद जवानों के सम्मान में विजय दिवस मनाया जाता है। 1971 में हुए घमासान भारत पाक युद्ध को अब आधी सदी हो चुका है, जब पाकिस्तान ने भारत के सामने आत्मसमर्पण कर दिया था। 16 दिसंबर 1971 को पाकिस्तानी सेना के 93000 सैनिकों ने भारत से बहादुर सैनिकों के सामने सरेंडर कर दिया था। तब यह संघर्ष बांग्लादेश मुक्ति संग्राम का परिणाम था। जब बांग्लादेश पूर्वी पाकिस्तान के नाम से जाना जाता था। तब से देश में हर वर्ष 16 दिसंबर को विजय दिवस के रूप में मनाया जाता है।